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मोदी की निर्णायक बढ़त, लगता है कि भारतीय मतदाता 2024 के चुनाव के लिए अपना मन पहले ही बना चुका है

प्रधानमंत्री मोदी ने वंचित वर्ग के लिए प्रभावी कल्याणकारी योजनाओं विश्वपटल पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की त्रयी से सफलता का यह मंत्र रचा है।

फिलहाल इस त्रिवेणी की किसी भी धारा के प्रवाह पर कोई संकट नहीं दिखता। पार्टी से इतर गठबंधन की बात करें तो इस मोर्चे पर भी आइएनडीआइए की तुलना में भाजपा के नेतृत्व वाला राजग कहीं ज्यादा दमदार दिखता है।सत्ता पक्ष और विपक्षी खेमे ने अगले लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी है। इसी सिलसिले में कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग ने अपना चोला बदलकर आइएनडीआइए का रूप धारण कर लिया है। क्या यह चोला बदलना चुनावी सफलता में भी परिणत हो पाएगा? क्या पिछले दो चुनावों में एक के बाद एक मानमर्दन झेलने वाली कांग्रेस पार्टी की संभावनाएं बेहतर होंगी?नि:संदेह, रणनीतिक तौर पर तो आइएनडीआइए के सहयोगियों ने एक प्रकार से कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है, पर राहुल गांधी को संयुक्त विपक्ष का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने को लेकर ऊहापोह कायम है। शायद इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता एक पहलू है।

पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा से सीधे मुकाबले वाली 80 प्रतिशत से अधिक सीटें गंवाई हैं। यहां तक कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हारने के कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा इन राज्यों की 90 प्रतिशत से अधिक सीटें जीत गई। वर्ष 2019 में सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद भाजपा 2014 की तुलना में कहीं अधिक सीटें जीतने में सफल रही। ऐसे में इस बार भी कांग्रेस के लिए इस रुझान को पलटना खासा मुश्किल होगा।

अमूमन लोग सवाल उठाते हैं कि 37.26 प्रतिशत वोट पाने वाली भाजपा कैसे व्यापक प्रतिनिधित्व वाली सरकार देने का दावा कर सकती है। इस आम धारणा के उलट तथ्य यही है कि 2019 में भाजपा के 74 प्रतिशत सांसदों को 50 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। यानी इन सीटों पर यदि विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार भी उतरता तो भाजपा के प्रत्याशी की जीत तय थी। वर्ष 1984 के बाद से किसी भी राजनीतिक दल को ऐसी अप्रत्याशित सफलता नहीं मिली। भाजपा को यह चमत्कारिक सफलता मोदी लहर के दम पर हासिल हुई है।

प्रधानमंत्री मोदी ने वंचित वर्ग के लिए प्रभावी कल्याणकारी योजनाओं, विश्वपटल पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की त्रयी से सफलता का यह मंत्र रचा है। फिलहाल, इस त्रिवेणी की किसी भी धारा के प्रवाह पर कोई संकट नहीं दिखता। पार्टी से इतर गठबंधन की बात करें तो इस मोर्चे पर भी आइएनडीआइए की तुलना में भाजपा के नेतृत्व वाला राजग कहीं ज्यादा दमदार दिखता है। राजग के सहयोगियों में जहां मतों के हस्तांतरण की क्षमता अधिक है वहीं आइएनडीआइए में साझेदार दल एक ही वर्ग के वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा में लगे हैं।

राजग के खेमे में ओमप्रकाश राजभर भाजपा के लिए गाजीपुर जैसी लोकसभा सीट पर जीत दिलाने में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं

सीट भाजपा मामूली अंतर से हार गई थी। वहीं सपा और कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भाजपा के मतदाताओं में उस प्रकार सेंध लगाने में सक्षम नहीं। यहां तक कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन भी भाजपा की राह नहीं रोक पाया। यदि सपा-बसपा गठजोड़ ऐसा नहीं कर पाया तो आइएनडीआइए के घटकों के लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा। भाजपा के विरुद्ध जमीनी स्तर पर बने अनुकूल माहौल को पलटने के लिए आइएनडीआइए के नेताओं को खासा जोर लगाना होगा और ठोस नीतियों एवं किसी विश्वसनीय नेता के अभाव में उनके लिए अभीष्ट की पूर्ति मुश्किल होगी।

जहां तक भाजपा का प्रश्न है तो अगले चुनाव में उसकी संभावनाएं बिहार, महाराष्ट्र और बंगाल में उसके प्रदर्शन पर बड़ी हद तक निर्भर करेंगी। बिहार में पार्टी के लिए कमोबेश वैसी ही स्थिति है जैसी 2014 के चुनाव में थी। नीतीश कुमार की खिसकती राजनीतिक जमीन और छोटे-छोटे सहयोगियों के साथ भाजपा यहां 2014 का अपना प्रदर्शन दोहरा सकती है। वहीं, महाराष्ट्र में अजीत पवार के नेतृत्व वाले राकांपा के धड़े के भाजपा से जुड़ने के बाद उद्धव गुट वाली शिवसेना की वजह से होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई हो सकती है।

बंगाल में भी स्थानीय निकाय और विधानसभा चुनावों के चाहे जो परिणाम रहे हों, लेकिन लोकसभा चुनाव को लेकर तृणमूल अभी तक भाजपा की राह में अवरोध उत्पन्न करने लायक कोई ठोस विमर्श तैयार नहीं कर सकी है। कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर आइएनडीआइए के खेमे में नहीं है। इसलिए भाजपा के विरुद्ध एकतरफा राजनीतिक गोलबंदी नहीं होगी। पिछले चुनाव में तमिलनाडु में भाजपा का खाता भी नहीं खुला था और अन्नाद्रमुक के साथ संभावित गठजोड़ की स्थिति में सीटों में कुछ बढ़ोतरी होने का ही अनुमान है। तेलंगाना में भाजपा का और उभार होता ही दिख रहा है।

मोदी-शाह की जोड़ी वह गलतियां नहीं दोहराएगी जो अटल बिहारी वाजपेयी और उनके सहयोगियों ने की थीं।

तब भाजपा केवल ‘भारत उदय’ नारे के चलते ही नहीं हारी थी, बल्कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती को लेकर गलत आकलन ने भी उसके समीकरण खराब किए थे। उसका समर्थक वर्ग वैचारिक मुद्दों पर पार्टी की हीलाहवाली से भी निराश था। अब ऐसी स्थिति नहीं है। राम मंदिर का निर्माण पूरी गति पर है। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की विदाई हो चुकी है। समान नागरिक संहिता को लेकर भी चर्चा आरंभ हो गई है।

इन सबसे बढ़कर प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी कल्याणकारी योजनाओं और लक्षित लाभार्थियों तक पहुंच से अपना एक विशेष वोट बैंक बनाया है। दूसरी ओर, विपक्ष अभी भी दिशाहीन और निस्तेज दिखता है। इससे यही लगता है कि भारतीय मतदाता 2024 के चुनाव के लिए अपना मन पहले ही बना चुका है, जिसकी अनुभूति पीएम मोदी को भी है। यही कारण है कि लाल किले की प्राचीर से उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से एलान किया कि अगले वर्ष भी यहां झंडा फहराने वही आएंगे।

 

 

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