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आदिवासी भगवान बिरसा मुंडा की जीवन बायोग्राफी

 

जब से द्रोपदी मुर्मू राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनी तबसे आदिवासी राजनीती तेज हो गयी है लेकिन क्या आपको पता है की आदिवासियों के भगवान् स्वरुप बिरसा मुंडा ने इस देश के लिए कितनी क़ुरबानी दी, जी हाँ वे एक आदिवासी नेता और लोकनायक थे। आज हम आदिवासी के महानायक बिरसा मुंडा की जीवनी पर चर्चा करेंगे ।

नमस्कार आप देख रहे है मोबाइल न्यूज़ 24 और मैं हूँ नूपुर सिंह।
भारत के आदिवासी बहुल राज्य झारखण्ड सहित ओडिसा, छत्तीसगढ़ एमपी सहित उन तमाम आदिवासी क्षेत्रों के लोग बिरसा मुंडा को ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके  यह सम्मान अर्जित किया।

19वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे।

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था | मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था | बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था |

उनका परिवार रोजगार की तलाश में उनके जन्म के बाद उलिहतु से कुरुमब्दा आकर बस गया जहा वो खेतो में काम करके अपना जीवन चलाते थे | उसके बाद फिर काम की तलाश में उनका परिवार बम्बा चला गया |

बिरसा का परिवार वैसे तो घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करता था लेकिन उनका अधिकांश बचपन चल्कड़ में बीता था | बिरसा बचपन से अपने दोस्तों के साथ रेत में खेलते रहते थे और थोडा बड़ा होने पर उन्हें जंगल में भेड़ चराने जाना पड़ता था |

जंगल में भेड़ चराते वक़्त समय व्यतीत करने के लिए वे बाँसुरी बजाया करते थे और कुछ दिनों में ही बाँसुरी बजाने में उस्ताद हो गये थे | उन्होंने कद्दू से एक तार वाला वादक यंत्र तुइला बनाया था जिसे वो बजाया करते थे | उनके जीवन के कुछ रोमांचक पल अखारा गाँव में बीते थे |

बिरसा ने अपना बचपन अपने घर में, ननिहाल में और अपने सास-ससुर की बकरियों को चराने में बिताया।

गरीबी के इस दौर में Birsa Munda को उनके मामा के गाँव अयुभातु  भेज दिया गया | अयुभातु में बिरसा दो साल तक रहे और वहा के स्कूल में पढ़े | बिरसा पढाई में बहुत होशियार थे इसलिए स्कूल चलाने वाले जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने को कहा |

उस समय क्रिस्चियन स्कूल में प्रवेश लेने के लिए इसाई धर्म अपनाना जरुरी हुआ करता था तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया जो बाद में बिरसा दाउद हो गया था |

युवा अवस्था में जब बिरसा काम की तलाश में एकस्थान से दूसरे स्थान पर यात्रा कर रहे थे तब उन्होंने अनुभव किया कि, उनका समुदाय ब्रिटिश उत्पीड़न के कारण पीड़ित था,  उन्होंने विभिन्न मामलों में इस तथ्य को महसूस करने के बाद कि ब्रिटिश कंपनी भारत में लोगों पर अत्याचार करने और धन को विदेश ले जाने के लिए यहाँ आयी है।

बाद में, उन्होंने कुछ दिनों के लिए चाईबासा में जर्मन मिशन स्कूल में पढ़ाई की। लेकिन स्कूलों में  आदिवासी संस्कृति का उपहास होता रहता था जिसे बिरसा ने बर्दाश्त नहीं किया और विरोध करने लगा ।

इसके बाद बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। उनका स्वामी आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला।  कहा जाता है कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनके कारण लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं।

जन-सामान्य का बिरसा में काफ़ी दृढ़ विश्वास हो चुका था, इससे बिरसा को अपने प्रभाव में वृद्धि करने में मदद मिली। लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में एकत्र होने लगे। अपने सम्बोधन से बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया।

लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म में लौटने लगे।

बिरसा मुंडा ने लोगों को किसानों का शोषण करने वाले जमींदारों के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया। यह देख ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भीड़ जमा करने का आरोप लगाकर कार्यवाही की । बिरसा ने कहा कि मैं अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं।

आगे उन्होंने 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। जिसके बाद 1895 में उन्हें ब्रिटिश शासन द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी।

लेकिन जेल से भी बिरसा ने अपने शिष्यों के जरिये और वापस आकर क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी, जिस कारण अपने जीवन काल में ही उन्होंने एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा  करते थे । उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे। बिरसा और उनके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था।

अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया।

जनवरी 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।

जहाँ कराबास के दौरान ही बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं।  बिरसा के क्रान्तिकार आंदोलन के कारन उन्हें आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भगवान की तरह पूजा जाता है।

जी हाँ तो ये थी आदिवासियों के प्रणेता और महँ स्वतंत्रता सेनानी भगवन बिरसा मुंडा  जीवन कथा
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