संत नामदेव का महाराष्ट्र में वही स्थान है, जो भक्त कबीरजी अथवा सूरदास का उत्तरी भारत में है।
निर्गुण संतों में संत, ‘संत नामदेव’
उनका सारा जीवन मधुर भक्ति-भाव से ओतप्रोत था। विट्ठल-भक्ति भक्त नामदेवजी को विरासत में मिली। उनका संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातपात के विषय में उनके स्पष्ट विचारों के कारण हिन्दी के विद्वानों ने उन्हें कबीरजी का आध्यात्मिक अग्रज माना है। वास्तव में श्री गुरु साहिब में संत नामदेव की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है। उनके जीवन के एक रोचक प्रसंग के अनुसार एक बार जब वे भोजन कर रहे थे, तब एक श्वान आकर रोटी उठाकर ले भागा। तो नामदेवजी उसके पीछे घी का कटोरा लेकर भागने लगे और कहने लगे ‘हे भगवान, रुखी मत खाओ साथ में घी लो।’
हठ देखकर विट्ठल हुए प्रगट
निर्गुण संतों में संत नामदेव का नाम अग्रणी है। 26 अक्तूबर, 1270 को महाराष्ट्र के नरसी बामनी नामक गाँव में अवतरित। पिता श्री दामाशेट और माता श्रीमती गोणाई थीं। कुछ लोग नामदेव का जन्मस्थान पण्डरपुर मानते हैं। इनके पिताजी दर्जी का काम करते थे; जो आगे चलकर पण्डरपुर आ गये और विट्ठल के उपासक हो गये। वे विट्ठल के श्रीविग्रह की भोग, पूजा, आरती आदि बड़े नियम से करते थे। जब नामदेव केवल पाँच वर्ष के थे, तो इनके पिता को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। उन्होंने विट्ठल के विग्रह को दूध का भोग लगाने का काम नामदेव को सौंप दिया। अबोध नामदेव को पता नहीं था कि मूर्त्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावात्मक भोग ही लगाया जाता है। नामदेव ने मूर्त्ति के सामने दूध रखा, जब बहुत देर तक दूध वैसा ही रखा रहा, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गये। बोले – जब तक तुम दूध नहीं पियोगे, मैं हटूँगा नहीं। जब तुम पिताजी के हाथ से रोज पीते हो, तो आज क्या बात है ? कहते हैं कि बालक की हठ देखकर विट्ठल भगवान प्रगट हुए और दूध पी लिया। बड़े होने पर इनका विवाह राजाबाई से हुआ। उससे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री की प्राप्ति हुई।
योग मार्ग के पथिक
नामदेव भारत के प्रसिद्ध संत थे। इनके समय में नाथ और महानुभाव पंथों का महाराष्ट्र में प्रचार था। पण्ढरपुर से कुछ दूर स्थित औढिया नागनाथ मन्दिर में रहने वाले विसोबा खेचर को इन्होंने अपना अध्यात्म गुरु बनाया। आगे चलकर सन्त ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए और योग मार्ग के पथिक बने। ज्ञानदेव से इनका प्रेम इतना प्रगाढ़ हुआ कि वे इन्हें अपने साथ लम्बी तीर्थयात्रा पर काशी, अयोध्या, मारवाड़, तिरुपति, रामेश्वरम आदि के दर्शनार्थ ले गये। एक-एक कर सन्त ज्ञानदेव, उनके दोनों भाई एवं बहिन ने भी समाधि ले ली। इससे नामदेव अकेले हो गये। इस शोक एवं बिछोह में उन्होंने समाधि के अभंगों की रचना की। इसके बाद भ्रमण करते हुए वे पंजाब के भट्टीवाल स्थान पर पहुँचे और वहाँ जिला गुरदासपुर में ‘घुमान’ नगर बसाया। फिर वहीं मन्दिर बनाकर तप किया और विष्णुस्वामी, परिसा भागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम दीक्षा दी।
हरि नांव सकल जीवन में क्रांति
सन्त नामदेव मराठी सन्तों में तो सर्वाधिक पूज्य हैं ही; पर उत्तर भारत की सन्त परम्परा के तो वे प्रवर्तक ही माने जाते हैं। मराठी साहित्य में एक विशेष प्रकार के छन्द ‘अभंग’ के जनक वे ही हैं। पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब’ में उनकी वाणी संकलित है। वे परमात्मा की प्राप्ति के लिए सद्गुरु की कृपा को बहुत महत्त्व देते हैं। पंजाब के बाद अन्य अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे फिर अपने प्रिय स्थान पण्ढरपुर आ गये और वहीं 80 वर्ष की अवस्था में 3 जुलाई, 1350 को उन्होंने समाधि ले ली। वे मानते थे आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। परमात्मा द्वारा निर्मित सभी जीवों की सेवा ही मानव का परम धर्म है। इसी से साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सन्त नामदेव द्वारा प्रवर्तित ‘वारकरी पन्थ’ के लाखों उपासक विट्ठल और गोविन्द का नाम स्मरण कर अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं। हरि नांव हीरा, हरि नांव लेत मिटै सब पीरा। हरि नांव जाती, हरि नांव पांती। हरि नांव सकल जीवन में क्रांति।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक, पत्रकार व स्तंभकार