इस संयोग के नवीनतम उदाहरण बनने जा रहे हैं राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश
सदन के साथ-साथ पार्टी से भी हो जाते हैं विदा
अंधविश्वास से जुड़े लोग इसे शगुन-अपशगुन से जोड़ सकते हैं। विशुद्ध राजनीति में इसे अवसरवाद कह सकते हैं। कुछ कहें, इस संयोग को देखें कि जदयू से राज्यसभा में नामित अधिसंख्य लोग सदन के साथ-साथ पार्टी से भी विदा हो जाते हैं।वह इस संभावना के साथ विदा होते हैं कि अगला चांस नहीं मिलेगा, सदन में रहते ही विदाई की तैयारी शुरू कर देते हैं। राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश इस संयोग के नवीनतम उदाहरण बनने जा रहे हैं। जदयू से उनकी दूरी इस हद तक बन चुकी है कि फिर से जुड़ने की संभावना नहीं नजर आ रही है।
फर्नांडीस भी जदयू से हुए थे दूर
दल से विदा होने के पहले कुछ ऐसी ही भूमिका शरद यादव (दिवंगत) और अली अनवर ने भी बनाई थी। दोनों पार्टी की घोषित लाइन के उस पार खड़े हो गए थे। शरद यादव जदयू के संस्थापक थे। बड़े समाजवादी जार्ज फर्नांडीस राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद जदयू के संपर्क में नहीं रहे।
डा. एजाज अली और साबिर अली जैसे राज्यसभा के सांसदों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। साबिर 2008 में लोजपा से राज्यसभा में गए। 2011 में पाला बदल कर जदयू में आ गए। राज्यसभा से हटने के बाद कुछ दिनों तक जदयू में रहे। अभी भाजपा में हैं।
अनिल सहनी भी हुए अलग
महेंद्र सहनी जदयू के राज्यसभा सदस्य थे। कार्यकाल में उनका निधन हो गया। पुत्र अनिल सहनी को उनका बचा कार्यकाल मिला। एक पूर्ण कार्यकाल भी दिया गया। विवादों से घिरे रहने के कारण जदयू वे से अलग हो गए। अभी राजद में हैं।
एनके सिंह और पवन कुमार वर्मा जैसे अकादमिक और प्रशासनिक क्षेत्र के दिग्गज भी राज्यसभा कार्यकाल तक ही जदयू से जुड़ कर रह पाए। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेहद करीबी लोग न सिर्फ जदयू से अलग हुए, बल्कि नीतीश कुमार के राजनीतिक विरोधी भी हो गए।
उपेंद्र कुशवाहा और आरसीपी सिंह की विदाई
उपेंद्र कुशवाहा ने तो राज्यसभा में कार्यकाल भी पूरा नहीं किया। अलग हुए और राष्ट्रीय लोक समता के नाम से नई पार्टी बना ली। वह दूसरी बार जदयू से जुड़े तो विधान परिषद का कार्यकाल छोड़ कर अलग हो गए। अभी राष्ट्रीय लोक जनता दल के नाम से उनकी नई पार्टी बनी है। लेकिन, उनसे अधिक दिलचस्प विदाई आरसीपी सिंह की है।
वे अधिकारी थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का सर्वश्रेष्ठ विश्वसनीय होना ही उनकी इकलौती राजनीतिक पूंजी थी। लेकिन, राज्यसभा का कार्यकाल पूरा होने से पहले उन्होंने भी अपना रास्ता अलग कर लिया। राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी का विवाद भी राज्यसभा सदस्य रहने के समय ही जदयू से हुआ था।
कार्यशैली पर उठा सवाल
हालांकि, उसका कारण राजनीतिक था। तिवारी चाह रहे थे कि भाजपा से लड़ने के लिए जदयू स्वयं को विस्तारित करे। उन्होंने जदयू की उस समय की कार्यशैली की भी आलोचना की थी। यह उन्हें राज्यसभा में दूसरी बार न भेजने का कारण बना। केसी त्यागी को इस परम्परा का अपवाद माना जा सकता है। वह राज्यसभा से हटने के बाद भी जदयू से जुड़े हुए हैं। राज्यसभा के अलग होने के बाद भी पार्टी से जुड़े रहने वाले कुछ नाम हैं। इनमें केसी त्यागी, गुलाम रसूल बलियावी कहकशां परवीन का नाम लिया जा सकता है। हां, ये सब जदयू के पदधारक भी हैं।