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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 75वीं पुण्यतिथि | Mobile news 24

देश का दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद भी हमने अपनी सभ्यता के मूल स्वर को तलाशने उसे तथाकथित आधुनिकता की कसौटी पर कसने और युगानुकूल परिस्थितियों के मुताबिक उसे परिष्कृत-संशोधित करने की जरूरत नहीं महसूस किया। यह मानकर आगे बढ़े कि दुनिया में जो सभ्यता विकसित हो रही है, उससे अलग-थलग तो नहीं रहा जा सकता।

महात्मा गांधी की दैहिक उपस्थिति भले हमारे बीच से 30 जनवरी 1948 को उठ गई, पर उनके वैचारिक दर्शन की जरूरत हमें हर उस वक्त महसूस होगी, जब हम भारत को नए सिरे से गढ़ने के बारे में सोचेंगे।दुनिया को भी जब कभी यूरोपीय जाति की सभ्यतागत बुराइयों से मुक्ति के उपाय ढूंढ़ने की जरूरत महसूस होगी, तो गांधी जी का दर्शन उनके काम आएगा। शायद इस वजह से ही आज भी दुनियाभर में गांधी जी पर सबसे ज्यादा शोध प्रबन्ध लिखे जा रहे हैं। यह अलग बात है कि गांधी जी स्वयं ऐसा कोई दावा नहीं करते कि- गांधीवाद जैसी कोई विचारधारा उनकी देन है। भारतीय परम्परा से प्राप्त ज्ञान को उन्होंने अपने समसामयिक विचारकों टॉलस्टॉय, थोरो, सरमन ऑन द माउन्ट की संगति में विकसित किया, जो भारत समेत दुनिया के लिए आज भी प्रेरणास्पद है।

महात्मा गांधी की नजर में सभ्यता वह आचारण है, जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। उसे अदा करने का मतलब है नीति का फर्ज अदा करना। नीति के पालन का अर्थ है अपने मन और इंद्रियों को वश में रखना। ऐसा करते हुए हम अपनी असलियत को पहचानते हैं। यही सभ्यता है।

गांधीवादी विचारक धर्मपाल जी बताते हैं कि जिस क्रूर तरीके से पश्चिमी सभ्यता 18वीं और 19वीं सदी में अपने ही लोगों के साथ पेश आती रही है, उससे खीज पैदा होना किसी के लिए भी स्वाभाविक है। सारी मानवता के सामने उत्पन्न खतरे को देखकर ही वे “हिन्द स्वराज” लिखने और आधुनिक यूरोपीय और भारतीय सभ्यता में मूलभूत अन्तर को स्पष्ट करने के लिए मजबूर हुए।

अपने देश का दुर्भाग्य यह है कि आजादी के बाद भी हमने अपनी सभ्यता के मूल स्वर को तलाशने उसे तथाकथित आधुनिकता की कसौटी पर कसने और युगानुकूल परिस्थितियों के मुताबिक उसे परिष्कृत-संशोधित करने की जरूरत नहीं महसूस किया। यह मानकर आगे बढ़े कि दुनिया में जो सभ्यता विकसित हो रही है, उससे अलग-थलग तो नहीं रहा जा सकता।

गांधीवादी चिन्तक बनवारी बताते हैं कि इस आधुनिक सभ्यता की परिभाषा करने का काम भी विश्व बिरादरी पर ही छोड़ दिया गया। उनके लिए यह सम्भव ही नहीं था कि दुनिया की दूसरे समाजों की श्रेष्ठता को अपनी सभ्यता में मिलाकर किसी विश्व सभ्यता की पनपाने की कोशिश करते। आज दुनिया को भी यह बात समझ में आने लगी है कि वैश्वीकरण के नाम पर जो चल रहा है वह एक तरह का औपनिवेशिकरण ही है, जिसके हथियार आर्थिक और वैचारिक है।

वे विचारों और वस्तुओं को एक ही टोकरी में रखकर दुनियाभर में बेच रहे हैं। हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने इन विचारों को ही शैतानी सभ्यता कहा है। आज भी यह कई रूपों में हमारे सामने आती ही रहती है।

आजादी का जो अमृत महोत्सव हम मना रहे हैं, उसे अंग्रेजों ने ब्रिटेन में भारत को सत्ता के हस्तांतरण के रूप में ही देखा जाता है। इस बात को प्रमाणित करने के लिए अंग्रेजों ने सन् 1960 से 1980 के बीच बारह खंडों में ” भारत: सत्ता का हस्तांतरण 1942-1947 ग्रंथमाला में प्रकाशित किया है। यही नहीं भारत की आजादी के ठीक पहले अगस्त 1942 में अमेरिका के राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ब्रिटीश राजदूत को यह सलाह देते है कि ब्रिटेन भारत के साथ कुछ ऐसा व्यवहार करे जिससे की भारत भविष्य में ‘पश्चिम की छत्रछाया’ में बना रहे।

इससे पहले ब्रिटेन के उपप्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने भी मंत्रिमंडल की एक बैठक में इस बात पर गर्व जताया है कि अपने दो सौ साल के शासन के दौरान हमने ऐसे तमाम ढांचागत उपहार दिए हैं और वे इस बात को लेकर भी आशान्वित हैं कि भविष्य के भारत में भी ये सारी व्यवस्थाएं चलती रहेंगी। ऐसे तमाम दस्तावेजी प्रमाण गांधीवादी चिन्तक धर्मपाल जी के अनेक शोध ग्रन्थों में प्रकाशित है।

वे पश्चिम से सहानुभूति रखने वाले ऐसे तमाम बुद्धिजीवियों को चेतावनी देते हुए कहते है कि जो भारतीय समस्याओं का हल पश्चिम के रास्ते चलकर प्राप्त करने का दिवास्वप्न देखते हैं, वास्तव में वे राष्ट्रपति रूजवेल्ट द्वारा घोषित ‘पश्चिम की छत्रछाया’ में ही जी रहे हैं।

महात्मा गांधी भारतीयों को पश्चिम की इस ‘छत्र छाया’ छुटकारा दिलाने की लड़ाई भी लड़ रहे थे। इसलिए महात्मा गांधी के लिए भारत की आजादी का आंदोलन मतलब महज ब्रिटिश सत्ता से हस्तांतरण तक सीमित नहीं था। वह एक व्यापक सभ्यतागत संघर्ष भी था, ताकि प्रत्येक भारतवासी अपने ‘स्व’ को पहचानने लगे। एक टूटे-थके मन में स्वाभिमान और स्फूर्ति का संचार हो सके।

घबराए लोगों में गांधी ने फूंकी ऊर्जा

सन् 1915 में पूरे भारत का दौरा करते हुए गांधी जी को यह मालूम भी हो गया कि भारत में दो-पांच प्रतिशत लोग ही हैं, जो बिगड़े हैं और जिनके चलते देश गिरा हुआ है।

एक बार गांधी जी पूछा गया कि यहां तो लोग बहुत घबराए हुए थे। आपने ऐसा क्या कर दिया कि लोग उठ खड़े हुए? महात्मा गांधी ने कहा कि मैंने केवल इतना ही कहा कि उनके मन में जो था और जिसे वे खुद नहीं कह पाते थे, उसको उनकी तरफ से कह दिया। इससे अधिक कुछ नहीं किया। भारत की आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी के इस महत्वपूर्ण योगदान को रेखांकित करते हुए आचार्य नरेन्द्र देव ने ठीक ही कहा कि-महात्मा गांधी ने आम आदमी को अभय कर दिया।

देश की आजादी के बाद भी कांग्रेस के मंच से पश्चिमी तंत्र से मुक्ति की आवाज उठती रही है। गांधीवादी इतिहासकार धर्मपाल ने हाल में प्रकाशित अपने आलेख संकलन ‘इतिहास समाज और परम्परा’ में एक जगह जिक्र किया है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने स्वयं कहा था कि उनके पिता जवाहरलाल नेहरू ने बड़ी गलती किया कि अंग्रेजों के बनाए तंत्र को जैसा-का-तैसा रहने दिया।
यही नहीं भारत के प्रधानमंत्री रहे नरसिम्हा राव ने लंदन में यह सवाल उठाया कि हम लोग सोचेंगे और

बराबर आग्रह रखेंगे, तो दस-बीस वर्षों में अंग्रेजों के बनाए तंत्र को पूर्ण रूप से बदलने का काम तो कर ही सकते हैं।
महात्मा गांधी की दिली ख्वाहिश भी यहीं थी कि भारत को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार नए तंत्र विकसित करने चाहिए। उसे युगानुकूल परिस्थितियों के मुताबिक ढालने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि भारत पश्चिम की तमाम अनर्गल प्रलापों का समुचित जवाब दे सके। भारत के अमृत महोत्सव पर कम से कम गांधी के चरणों में तो यही सर्वोत्तम श्रद्धांजलि होगी।

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