स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जीवन जीवनी | Mobile news 24
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जीवन जीवनी
दयानन्द सरस्वती का जन्म १२ फरवरी टंकारा में सन् १८२४ में मोरबी (मुम्बई की मोरवी रियासत) के पास काठियावाड़ क्षेत्र (जिला राजकोट), गुजरात में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण कुल के समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। इनका जन्म धनु राशि और मूल नक्षत्र मे होने से स्वामी दयानन्द सरस्वती का बाल्यावस्था में नाम मूलशंकर रखा गया। उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। दयानंद सरस्वती की माता वैष्णव थीं जबकि उनके पिता शैव मत के अनुयायी थे। आगे चलकर विद्वान बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।
उन्नीसवीं शताब्दी के महान समाज-सुधारकों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम अत्यंत श्रध्दा के साथ लिया जाता है. जिस समय भारत में चारों ओर पाखंड और मुर्ति-पूजा का बोल-बाला था, स्वामी जी ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. उन्होंने भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 1876 में हरिव्दार के कुंभ मेले के अवसर पर पाखण्डखंडिनी पताका फहराकर पोंगा-पंथियों को चुनौती दी. उन्होंने फिर से वेद की महिमा की स्थापना की. उन्होंने एक ऐसे समाज की स्थापना की जिसके विचार सुधारवादी और प्रगतिशील थे,जिसे उन्होंने आर्यसमाज के नाम से पुकारा.
स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता. स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे. समाज-सुधार के संबंध में गांधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया. कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा. स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया, यह बात उनकी दया भावना का जीता-जागता प्रमाण है.
दयानंद सरस्वती का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।
उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। एक बार शिवरात्रि की घटना है। तब वे बालक ही थे। शिवरात्रि के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मन्दिर में ही रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि भगवान शिव आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को चूहे खा रहे हैं। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।
जीवन क्या है? मृत्यु क्या है? इन सवालों के जवाब सक्षम महात्मा से समझ लेना चाहिये, ऐसा उन्हें लगा. इस ध्येय प्राप्ती के लिये उन्होंने 21 साल की उम्र में अपना घर छोड़ा. उनके परिवार के बड़े सदस्योने उनकी विवाह के बारे में चलाये विचार ये उनके इस निर्णय के दलील हुयी. भौतिक सुख का आनंद लेने के अलावा खुद की आध्यात्मिक उन्नत्ती करवा लेना उन्हें अधिक महत्त्वपूर्ण लगा. उन्होंने मथुरा में स्वामी विरजानंद जि के पास रहकर वेद आदि आर्य-ग्रंथों का अध्ययन किया. गुरुदक्षिणा के रूप में स्वामी विरजानंद जी ने उनसे यह प्रण लिया कि वे आयु-भर वेद आदि सत्य विद्याओं का प्रचार करते रहेंगे. स्वामी दयानंद जी ने अंत तक इस प्रण को निभाया.
एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होने 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली . उनमे जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था इसलिए ही इन्होने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया . इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और दृढता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा . इनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था कि इनमे विरोध करने एवम खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी . इसी कारण ही इन्होने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया और देश को आर्य भाषा अर्थात हिंदी के प्रति जागरूक बनाया.
स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता. स्वामी जी महान राष्ट्र-भक्त और समाज-सुधारक थे. समाज-सुधार के संबंध में गांधी जी ने भी उनके अनेक कार्यक्रमों को स्वीकार किया. कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह राष्ट्र के कर्णधारों के लिए सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा. स्वामी जी ने विष देने वाले व्यक्ति को भी क्षमा कर दिया, यह बात उनकी दयाभावना का जीता-जागता प्रमाण है.
धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया। स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।
समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए। “भारत, भारतीयों का है’ यह अँग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे।
स्वामी जी ने मन, वचन व कर्म तीनों शक्तियों से समाजोद्धार के लिए प्रयत्न किया । अपनी रचनाओं व उपदेशों के माध्यम से भारतीय जनमानस को मानसिक दासत्व से मुक्त कराने की पूर्ण चेष्टा की । उनकी वाणी इतनी अधिक प्रभावी व ओजमयी थी कि श्रोता के अंतर्मन को सीधे प्रभावित करती थी । उनमें देश-प्रेम व राष्ट्रीय भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी । समाजोत्थान की दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयास अविस्मरणीय हैं । समाज में व्याप्त बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का उन्होंने खुले शब्दों में विरोध किया । उनके अनुसार बाल-विवाह शक्तिहीनता के मूल कारणों में से एक है । इसके अतिरिक्त वे विधवा-विवाह के भी समर्थक थे । स्वामी दयानंद सरस्वती जी को अपनी मातृभाषा हिंदी से विशेष लगाव था । उन्होंने उस समय हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलाने हेतु पूर्ण चेष्टा की । उनके प्रयासों से हिंदी के अतिरिक्त वैदिक धर्म व संस्कृत भाषा को भी समाज में विशेष स्थान प्राप्त हुआ ।
सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर , जो कि अब स्वामी दयानन्द सरस्वती बन चुके थे, मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। दयानन्द ने उनसे शिक्षा ग्रहण की। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी “मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।” संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं।
गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छूत का उन्होंने ज़ोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।
* ये ‘शरीर’ ‘नश्वर’ है, हमे इस शरीर के जरीए सिर्फ एक मौका मिला है, खुद को साबित करने का कि, ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है।
* वेदों मे वर्णीत सार का पान करनेवाले ही ये जान सकते हैं कि ‘जिन्दगी’ का मूल बिन्दु क्या है।
* क्रोध का भोजन ‘विवेक’ है, अतः इससे बचके रहना चाहिए। क्योकी ‘विवेक’ नष्ट हो जाने पर, सब कुछ नष्ट हो जाता है।
* अहंकार’ एक मनुष्य के अन्दर वो स्थित लाती है, जब वह ‘आत्मबल’ और ‘आत्मज्ञान’ को खो देता है।
* ईष्या से मनुष्य को हमेशा दूर रहना चाहिए। क्योकि ये ‘मनुष्य’ को अन्दर ही अन्दर जलाती रहती है और पथ से भटकाकर पथ भ्रष्ट कर देती है।
* अगर ‘मनुष्य’ का मन ‘शाँन्त’ है, ‘चित्त’ प्रसन्न है, ह्रदय ‘हर्षित’ है, तो निश्चय ही ये अच्छे कर्मो का ‘फल’ है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का मौत कैसे हुआ
स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अंग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। स्वामी जी की मृत्यु ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदा कदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठ कर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इस से नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। अन्यथा एक साधारण वेश्या के लिए यह सम्भव नहीं था कि केवल अपने बलबूते पर स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा षड्यन्त्र कर सके। बिना किसी प्रोत्साहन और संरक्षण के चिकित्सक भी ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकता था।